तांगा का इतिहास: कभी शान की सवारी था तांगा, अब बस यादों में जिंदा! घोड़ों की टापों की जगह क्यों गूंजने लगे मोटर गाड़ियों के हॉर्न?

तांगा का इतिहास: कभी शान की सवारी था तांगा, अब बस यादों में जिंदा! घोड़ों की टापों की जगह क्यों गूंजने लगे मोटर गाड़ियों के हॉर्न? (Chhattisgarh Talk)
तांगा का इतिहास: कभी शान की सवारी था तांगा, अब बस यादों में जिंदा! घोड़ों की टापों की जगह क्यों गूंजने लगे मोटर गाड़ियों के हॉर्न? (Chhattisgarh Talk)

तांगा का इतिहास: एक समय था जब तांगा शहरों की सड़कों की शान हुआ करता था, लेकिन ऑटो और कारों की तेज रफ्तार के आगे इसके पहिए थम गए। क्या तांगे का दौर फिर से लौट सकता है? पढ़ें इस दिलचस्प रिपोर्ट में।


भूपेंद्र साहू, कोरबा (छत्तीसगढ़): एक समय था जब तांगे की घंटियों की टन-टन, घोड़ों की टापों की आवाज और तांगेवालों की चिर-परिचित पुकार हर शहर की सड़कों पर सुनाई देती थी। “चल धन्नो…”, “चल बादल…”, “जरा हटके…”, ये आवाजें सफर के रोमांच को दोगुना कर देती थीं। लेकिन आज यही आवाजें इतिहास बन चुकी हैं। वक्त के साथ तांगे के पहिए थम गए और उनकी जगह मोटर गाड़ियों, ऑटो और बसों ने ले ली।

कोरबा जैसे शहर में, जहां कभी स्टेशन से लेकर बस स्टैंड तक तांगे सवारी ढोते थे, अब वे गिनती के ही बचे हैं। ऑटो, टैक्सी और बसों की भीड़ में तांगे की धीमी चाल कहीं गुम हो गई है।


तांगा का इतिहास: एक दौर था जब तांगा ही था सफर का सबसे बड़ा सहारा

कुछ दशक पहले तक, जब सड़कों पर कारें इतनी आम नहीं थीं, तांगा ही परिवहन का सबसे महत्वपूर्ण साधन था। चाहे शादी-ब्याह की शान हो, बारात की रौनक हो या फिर अंतिम यात्रा का भावुक सफर—हर मौके पर तांगा लोगों की ज़िंदगी का हिस्सा हुआ करता था।

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छत्तीसगढ़ के ज्यादातर जिलों में तांगे की अलग पहचान थी। रायपुर, दुर्ग-भिलाई, बिलासपुर सहित महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर तांगे यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए खड़े रहते थे। यहां तक कि कोरबा में भी पुराने बस स्टैंड से रेलवे स्टेशन तक यात्रियों को लाने-ले जाने के लिए तांगा ही मुख्य साधन था।

92 वर्षीय ओंकार सिंह ठाकुर याद करते हुए कहते हैं—
“एक जमाना था जब कोरबा में सैकड़ों तांगे दौड़ा करते थे, लेकिन अब गिनती के तांगे ही बचे हैं। मोटर गाड़ियों के आगे तांगा टिक नहीं पाया।”


फिल्मों में भी तांगे ने बटोरी खूब सुर्खियां!

बॉलीवुड फिल्मों में भी तांगा अहम किरदार की तरह रहा है।
फिल्म “शोले” में बसंती (हेमा मालिनी) का तांगा और उसकी घोड़ी धन्नो आज भी सबको याद है।
“नया दौर” में दिलीप कुमार का तांगे के साथ मशीनों से संघर्ष का दृश्य तांगे की महत्ता को दर्शाता है।
“हावड़ा ब्रिज”, “तांगेवाला”, “मर्द” और कई अन्य फिल्मों में भी तांगा मुख्य आकर्षण रहा।


क्यों खत्म हो गया तांगे का दौर?

मोटर गाड़ियों की तेज़ रफ्तार: तांगे की धीमी गति के आगे बस, ऑटो और टैक्सियों ने बढ़त बना ली।
महंगा रखरखाव: घोड़े को खिलाने और तांगे की मरम्मत का खर्च बढ़ता गया।
नई पीढ़ी की बेरुखी: युवा अब बाइक, स्कूटर और कार को ज्यादा पसंद करने लगे।
शहरों में जगह की कमी: अब तांगे के लिए सड़कें नहीं बचीं, संकरी गलियों में वे चल नहीं सकते।

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शिवरीनारायण में तांगा चलाने वाले अयोध्या प्रसाद बताते हैं—
“मैं 26 साल से तांगा चला रहा हूं। पहले अच्छी कमाई होती थी, लेकिन अब मुसाफिर नहीं मिलते। लोग जल्दी पहुंचना चाहते हैं, इसलिए ऑटो या बस पकड़ लेते हैं।”


तांगा का इतिहास: क्या तांगा फिर लौट सकता है?

आज जब दुनिया ईको-फ्रेंडली ट्रांसपोर्ट की ओर बढ़ रही है, तो तांगे का सफर फिर से लौट सकता है। पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों, प्रदूषण और ट्रैफिक जाम के इस दौर में, तांगा एक बेहतर और सस्ता विकल्प साबित हो सकता है। हालांकि, इसके लिए सरकार को खास योजनाएं बनानी होंगी।

तांगे का सफर: सिर्फ एक यात्रा नहीं, एक एहसास था!

कोई शोर नहीं, कोई प्रदूषण नहीं!
बैठते ही अपनापन महसूस होता था!
आरामदायक सफर, बिना धक्का-मुक्की के!
घोड़े और तांगेवाले के बीच अनकहा रिश्ता!

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तांगा का इतिहास: तांगे का सफर! सिर्फ एक यात्रा नहीं, एक एहसास था! (Chhattisgarh Talk)
तांगा का इतिहास: तांगे का सफर! सिर्फ एक यात्रा नहीं, एक एहसास था! (Chhattisgarh Talk)

लेकिन अब…
⚠️ तांगे के पहिए थम चुके हैं।
⚠️ घोड़े की टापों की जगह मोटर गाड़ियों के हॉर्न ने ले ली है।
⚠️ पुराने शहरों में अब तांगे सिर्फ पर्यटकों के आकर्षण के लिए ही बचे हैं।


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