छत्तीसगढ़ के नारायणपुर गांव में स्थित 11वीं शताब्दी का महादेव मंदिर भोरमदेव और खजुराहो शैली का अद्भुत उदाहरण है, जिसे संरक्षण की सख्त जरूरत है।
11वीं शताब्दी के नारायणपुर महादेव मंदिर को संरक्षण की दरकार
बलौदाबाजार: छत्तीसगढ़ की धरती पर इतिहास की कई परतें बिखरी पड़ी हैं — कुछ सजी-संवरी, तो कुछ धूल में गुम। ऐसी ही एक मौन धरोहर है। सालों से महानदी के किनारे खड़ा एक प्राचीन मंदिर समय की आंधियों को चुपचाप सहता रहा है। कभी यह पत्थर बोलते थे, मूर्तियाँ गाते हुए कथा कहती थीं। पर आज… इन दीवारों पर सिर्फ धूल है, चुप्पी है और उपेक्षा की परतें। हम बात कर रहे हैं कसडोल विकासखंड के नारायणपुर गांव स्थित 11वीं–12वीं शताब्दी के महादेव मंदिर की, जो कभी खजुराहो और भोरमदेव जैसी स्थापत्य शैलियों का प्रत्यक्ष उदाहरण हुआ करता था।
इतिहास के पन्ने बोलते हैं, पर सुनने वाला कौन?
बलौदाबाजार जिले की कसडोल तहसील, जहां जंगलों की हरियाली, झरनों की गूंज और बारनवापारा की गूंजती हुई आवाजें पर्यटकों को लुभाती हैं, वहां एक गांव है — नारायणपुर, जहां इतिहास चुपचाप सांस ले रहा है। नारायणपुर का यह शिव मंदिर, महानदी के तट पर, जंगल और गांव के बीच बसा है। ये वही कला है जो भोरमदेव, खजुराहो, सिरपुर की पहचान है। गर्भगृह से लेकर मंडप तक, पंचरथ शैली से लेकर जंघा भाग पर उकेरी गई मूर्तियों तक – हर पत्थर आपको इतिहास की गहराई में ले जाता है।
यहां एक और मंदिर है – सूर्य देव को समर्पित, 9वीं सदी का, जिसकी शिल्पकला किसी राजघराने की शान सी लगती है।
इतिहास की सांसें लेता मंदिर
बलौदाबाजार जिले के कसडोल से मात्र 8 किमी दूर, ग्राम बगार से थोड़ा भीतर बसे इस मंदिर को देखना, भारतीय स्थापत्य कला की जीवंत कक्षा में प्रवेश करने जैसा है। पंचरथ शैली में निर्मित इस शिव मंदिर में गर्भगृह, मंडप और विकसित अमलक, स्थापत्य के वे तत्व हैं जो इसे अद्वितीय बनाते हैं। मंदिर की दीवारों पर भगवान विष्णु के वराह, नृसिंह, बुद्ध और कल्कि अवतार, अप्सराएं, संगीतकार, और यहां तक कि कामक्रीड़ा करती युगल प्रतिमाएं भी अत्यंत बारीकी से उकेरी गई हैं।
समीप स्थित 9वीं सदी का सूर्य मंदिर और भी विस्मित करता है। यहां के द्वारपाल, सिरदल पर उकेरे गए सूर्य की प्रतिमा और प्रस्तर में अभिलेख – सबकुछ बताता है कि यह स्थल किसी समय अत्यंत समृद्ध, सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र रहा होगा।
लेकिन अब…
अब वहां कभी बीयर की बोतलें मिलती हैं, कभी मुर्गा पार्टी के अवशेष। वन विभाग ने कभी वहां उद्यान और तटबंध बनवाया था, ताकि पर्यटक आएं, इतिहास को जानें। लेकिन अब वही जगह बन गई है मौज-मस्ती और अराजकता का अड्डा। शराब, गाली-गलौच, लड़के-लड़कियों के झुंड, और उन परिवारों की शर्मिंदगी – जो वहां अपने बच्चों के साथ थोड़ा इतिहास महसूस करने आते हैं।
मंदिर का दर्द क्या कोई सुनेगा?
मुख्य मार्ग से भीतर होने के कारण न तो लोगों को इसकी जानकारी है, न प्रशासन को परवाह। पुरातत्व विभाग की दीवारों में बंद कुछ मूर्तियाँ और जंग लगी सलाखें – यही बचा है संरक्षण के नाम पर।
सवाल ये है — जब ये जगह इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और पर्यटकों के लिए खजाना बन सकती है, तो इसे इस हाल में क्यों छोड़ा गया?
जब कला, समय और लापरवाही की त्रयी टकराई…
दुर्भाग्य यह है कि इस धरोहर की ओर न तो शासन का ध्यान गया और न ही समाज का। मंदिर परिसर तक पहुंचने वाला रास्ता मुख्य मार्ग से भीतर है, जिससे अधिकतर लोग इसके अस्तित्व से ही अनजान हैं। जिन्हें जानकारी है, उनमें से भी बहुत से लोग इसके इतिहास या महत्व को नहीं समझते।
वन विभाग ने मंदिर परिसर में सुंदर उद्यान, तटबंध और पचरी का निर्माण कराया था – पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से। परंतु देखरेख के अभाव ने इस पूरे क्षेत्र को एक अराजक पिकनिक स्पॉट में बदल दिया है। यहां शराब की बोतलें, जानवरों के अवशेष, बीयर कैन, और गंदगी हर कोने में बिखरी पड़ी है।
परिवार आते हैं इतिहास से जुड़ने, पर लौटते हैं शर्मिंदगी लेकर
यह मंदिर अब मौज-मस्ती और अशालीन व्यवहार का अड्डा बन चुका है। युवक-युवतियों की हरकतें इतनी असहज होती हैं कि परिवार के साथ आए पर्यटक शर्मिंदगी महसूस करते हैं। धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल का यह हाल समाज और प्रशासन – दोनों के लिए एक सवाल बनकर खड़ा है।
अब क्या चाहिए?
इस अद्भुत धरोहर को बचाने के लिए सबसे पहले इसकी सार्वजनिक मान्यता और सुरक्षा आवश्यक है।
- मंदिर परिसर में स्थायी गार्ड या चौकीदार की नियुक्ति
- परिसर की नियमित सफाई
- युवाओं को ऐतिहासिक विरासत के प्रति संवेदनशील बनाना
- पर्यटन विभाग द्वारा इसे राज्य संरक्षित स्मारक घोषित कर प्रचारित करना
ये सिर्फ मंदिर नहीं, पहचान है
हर पत्थर जो बोलता था, आज चुप है।
हर मूर्ति जो कहानी कहती थी, अब धूल में दबी है।
अगर अब भी नहीं जागे, तो अगली पीढ़ी सिर्फ तस्वीरों में देखेगी कि कभी नारायणपुर में भी खजुराहो जैसी कला ज़िंदा थी।
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